About Gaya Ji

ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उस दौरान उनसे असुर कुल में गया नामक असुर की रचना हो गई। गया असुरों के संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी। वह देवताओं का सम्मान और आराधना करता था। उसके मन में एक खटका था। वह सोचा करता था कि भले ही वह संत प्रवृति का है लेकिन असुर कुल में पैदा होने के कारण उसे कभी सम्मान नहीं मिलेगा। इसलिए क्यों न अच्छे कर्म से इतना पुण्य अर्जित किया जाए ताकि उसे स्वर्ग मिले। गयासुर ने कठोर तप से भगवान श्री विष्णुजी को प्रसन्न किया। भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने मांगा। आप मेरे शरीर में वास करें। जो मुझे देखे उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं। वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में स्थान मिले।

भगवान से वरदान पाकर गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा। जो भी उसे देख लेता उसके पाप नष्ट हो जाते और स्वर्ग का अधिकारी हो जाता। इससे यमराज की व्यवस्था गड़बड़ा गई. कोई घोर पापी भी कभी गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके पाप नष्ट हो जाते। यमराज उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग मांगने लगता। यमराज को हिसाब रखने में संकट हो गया था। यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि अगर गयासुर को न रोका गया तो आपका वह विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उसके कर्म के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था दी है। ब्रह्माजी ने उपाय निकाला। उन्होंने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे ज्यादा पवित्र है इसलिए तुम्हारी पीठ पर बैठकर मैं सभी देवताओं के साथ यज्ञ करुंगा। उसकी पीठ पर यज्ञ होगा यह सुनकर गया सहर्ष तैयार हो गया। ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ पत्थर से गया को दबाकर बैठ गए। इतने भार के बावजूद भी वह अचल नहीं हुआ। वह घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था। देवताओं को चिंता हुई। उन्होंने आपस में सलाह की कि इसे श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिए अगर स्वयं श्री हरि भी देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर अचल हो जाएगा। श्री हरि भी उसके शरीर पर आ बैठे। श्रीविष्णु जी को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर गयासुर ने कहा- आप सब और मेरे आराध्य श्री हरि की मर्यादा के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं। घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य बंद कर दूंगा। लेकिन मुझे चूंकि श्री हरि का आशीर्वाद है इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकता इसलिए श्री हरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें।

गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में व अक्षयवट के नीचे किया जाता है। वह स्थान बिहार के गया में हुआ जहां श्राद्ध आदि करने से पितरों का कल्याण होता है। पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की, यह बताना उतना ही कठिन है जितना कि भारतीय धर्म-संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना। परंतु स्थानीय पंडों का कहना है कि सर्व प्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने पिंडदान किया था। महाभारत के 'वन पर्व' में भीष्म पितामह और पांडवों की गया-यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्रीराम ने महाराजा दशरथ का पिण्ड दान यहीं (गया) में किया था। गया के पंडों के पास साक्ष्यों से स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस व चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है। गया में फल्गू नदी प्रायः सूखी रहती है। इस संदर्भ में एक कथा प्रचलित है।

गया में पिंडदान कथा!

भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीताजी के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गयाधाम पहुंचे। श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री लाने वे चले गये। तब तक राजा दशरथ की आत्मा ने पिंड की मांग कर दी। फल्गू नदी तट पर अकेली बैठी सीताजी अत्यंत असमंजस में पड़ गई। माता सीताजी ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया।जब भगवान श्री राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ। तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने लाया गया। पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली। इससे क्रोधित होकर सीताजी ने फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी रहोगी जबकि गाय को मैला खाने का श्राप दिया केतकी के फूल को पितृ पूजन मे निषेध का। वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर सीताजी ने उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने व लंबी आयु का वरदान दिया।

तब से ही फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती हैं, जबकि वटवृक्ष अभी भी तीर्थयात्रियों को छाया प्रदान करता है। आज भी फल्गू तट पर स्थित सीता कुंड में बालू का पिंड दान करने की क्रिया (परंपरा) संपन्न होती है। क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा। मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा। इस तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा। साथ ही वहा भगवान "श्री विष्णुजी * ने अपने पेर का निशान स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर मे दर्शनीय हे।

द्वापर युग में पिंडदान!

द्वापर युग में भी कुरू क्षेत्र में मारे लाखों लोगों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान किए जाने का वर्णन मिलता है। वहीं महाभारत काल में भी पांडवों का दो बार गया आने का वर्णन मिलता है। वैसे तो गया धाम में 365 पिंडवेदियों पर पिंडदान और तर्पण करने का विधान है लेकिन कलान्तर में एक एक कर पिंडवेदियों के लुप्त हो जाने से 54 वेदियां ही बची है। इनमें गया श्राद्ध में अब तीन ही वेदियां फल्गु नदी का तट, विष्णुपद मंदिर तथा अक्षयवट में पिंडदान होता है। इसके अलावा सीताकुंड, रामशिला, प्रेतशिला, धर्मारण्य, रू कमिणी तालाब, वैतरणी तालाब समेत अन्य तालाबों पर भी पिंडदान किया जाता है।

श्राद्ध की मूल कल्पना कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद पर आधारित!

श्राद्ध की मूल कल्पना वैदिक दर्शन के कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद पर आधारित है। कहा गया है कि आत्मा अमर है, जिसका नाश नहीं होता। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों और वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है। मान्यता है कि जो लोग अपना शरीर छोड़ जाते हैं, वे किसी भी लोक में या किसी भी रूप में हों, श्राद्ध पखवाड़े में पृथ्वी पर आते हैं और श्राद्ध व तर्पण से तृप्त होते हैं। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है। यूं तो देश के कई स्थानों में पिंडदान किया जाता है, परंतु बिहार के फल्गु तट पर बसे गया में पिंडदान का बहुत महत्व है।